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एक पेड़ जो चलने लगा

 जो हाँ.. में ही वह पेड़ हूँ. जो सालों तक अपनी जगह पर स्थिर था, जड़ था. सुइय था। अचानक ही चलने लगा निरुद्देश्य, दिशाहीन सा। है न हैरानी जालो बात? न कभी सुनी और न हो देखी। क्या आप मेरी बलने की मजबूरी को अनकही व्यथा सुनेंगे?



जहाँ आप मुझे गाँव के एक सिरे पर अकेला, उदास, तन्हा-सा देख रहे हैं. कुछ साल पहले यहाँ पर तरह-तरह के वृक्ष, वनस्पतियों का ढेर सारा खताना, हरियाली और खुशहाली से भरपूर एक हरा-भरा जंगल था। हवा के साथ झूमती शाखाएँ, सूरज की किरणों-सी अठखेलियों करते पत्ते, मर्मर ध्वनि का सुखद संगीत कानों में मिश्री घोलता हुआ सब कुछ अभूतपूर्व और सुखद था। सारा जंगल पक्षियों को चहचहाहट से चहकता था। पशुओं की आवत-जावत से धड़कता था. भीनी-भीनी खुशबू से महकता था। सब कुछ एकदम सही, आदर्श और संपूर्ण। मैं इसी जगह जंगल के एक छोर पर गाँव की सरहद पर मुसकराता, झूमता, गाता, इठलाता, इतराता और अपने अस्तित्व पर गर्व करता बड़ा था। मेरा इस स्थान पर खड़ा होना मेरे लिए और भी महत्वपूर्ण था. क्योंकि मुझ पर जंगल के डेरों पंछियों का बसेरा था। जंगल की राह से आते-जाते पथिकों और बटोहियों का मैं डेरा भी था और अनेक पशु-पक्षियों, तितलियों, कीट-पतंगों का चितेरा था।


मैं गाँव की सरहद पर खड़ा और संतरी के समान अड़ा गाँव और जंगल के बीच का इकलौता प्रत्यक्षदर्शी जंगल को हरा-भरा देखकर और गाँव को भरा-पूरा देखकर खुश था। इतना ही नहीं मेरीएक बड़ी खुशी का कारण बच्चों की वह टोली थी, जो मेरे इर्द-गिर्द आँख मिचौली खेलते थे। गौरी, आनंद, यूसुफ़, जेनी, सुखदा, यश और नताशा की टोली, जिन्हें मैं मन-ही-मन सप्तर्षि मंडल कहता था और स्वयं ध्रुव तारे की तरह स्थिर रहकर उनका हास-परिहास और कौतुक देखकर रोमांचित होता था। वे सातों जब 'बरगद दादा' कहकर मुझे संबोधित करते, तो मैं खुशी से झूम उठता और मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता।

वे कभी-कभी अपनी-अपनी फ़रियाद लेकर आते, कभी यूँ ही खेलते-बतियाते और कभी मेरी शाखाओं में चढ़कर जोश भरे गाने गाते। मेरी लटकती लटों से लटककर जब वे झूले झूलते, तो मैं भी खुश होकर उनके साथ झूमने लगता था। जंगल के साथ-साथ ही नदी बहती थी. जिसमें कंकड़ फेंक फेंककर ये सातों कभी एक-दूसरे को मुँह चिढ़ाते तो कभी जोश में भरे नारे लगाते। उन सबके हास-परिहास, क्रोध आक्रोश जोश-हर्षातिरेक का प्रत्यक्षदर्शी मैं मुसकराए बिना न रह पाता। चैन से दिन गुजर रहे थे। अपने सप्तर्षि मंडल को फलते-फूलते, बढ़ते देखकर मैं मौन भाव से संतुष्टि महसूस करता था।


एक दिन की बात है, जब मेरे सप्तर्षि मंडल की टोली मेरे निकट ही धमाचौकड़ी मचा रही थी, तभी शहर की ओर से एक धूल का गुबार-सा उड़ता हुआ नजर आया। गाँव की कच्ची सड़क पर मोटरकारों का एक काफ़िला गर्द उड़ाता हुआ आ रहा था। सातों बच्चों के साथ मैं भी इतनी सारी गाड़ियों को एक साथ उस छोटे से गाँव में देखकर हैरान था। सारी गाड़ियाँ जंगल की सरहद पर यानी मेरे करीब ही आकर रुक गई। देखते ही देखते उन गाड़ियों से कुछ देशी-विदेशी उतर पड़े। उनके पास कैमरे, बाइनाक्यूलर, कंप्यूटर और अन्य यंत्र थे। उन्होंने इधर-उधर जाकर जंगल और नदी के चित्र खींचने शुरू कर दिए। वे जंगल व नदी की ओर इशारा कर अंग्रेजी में कुछ चर्चा कर रहे थे। उनके साथ इस वार्तालाप में मुख्य रूप से गाँव के मुखिया का बेटा सहभागी था, जो अभी हाल में ही अमेरिका से वापस आया था। वह उन आगंतुकों को गाँव के बारे में सब कुछ समझा रहा था।मेरे चौड़े तने के पीछे छिपी हुई उन सातों की टोली उत्सुकता से वह सारा नजारा देख रही थी। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? मुखिया जी के बेटे ने कार के सामने वाले हिस्से में ही अपना कंप्यूटर रखा और सबको कुछ समझाने लगा। मुझे जो समझ में आया वह यही था कि नदी में एक बाँध बनाया जाएगा और फिर ऊँचाई से पानी गिराकर बिजली पैदा की जाएगी। इसके लिए बिजली का पावरहाउस या बिजलीघर बनाया जाएगा, जिससे सारा गाँव रोशन हो जाएगा। बिजलीघर बनने से और बाँध बनाए जाने से गाँव के युवाओं को नौकरियाँ भी मिलेंगी। इससे गाँव का विकास होगा और खुशहाली आएगी।


केवल मुझे छोड़कर, गाँव के सभी लोग उत्साहित व प्रसन्न थे, क्योंकि मैं बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ था। मेरी आशंकाएँ निराधार नहीं थीं। नदी में बाँध बनाया जाना था, बिजलीघर बनाया जाना था, बड़ी-बड़ी मशीनें खरीदी जानी थीं, जिन्हें गाँव की टूटी-फूटी सड़‌कों व पगडंडियों से लाना संभव नहीं था। बिजलीघर व बाँध के निर्माण कार्यों के लिए बड़ी भारी मात्रा में ईंटें, रोड़ी, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, रेत, सीमेंट, चूना, सरिया, तार, लोहा और तरह-तरह के यंत्र व उपकरणों का लाया जाना जरूरी था। ढेरों तरह का सारा सामान लाने के लिए सड़कों का बनाया जाना, गाँव तक रेल की पटरी का बिछाया जाना और रेलवे स्टेशन बनाया जाना भी आवश्यक था और इन सबके लिए जंगल का काटा जाना भी जरूरी था।


गाँव के विकास के लिए ढेर सारी योजनाएँ बन रही थीं कि कहाँ पर बाँध बनेगा? कहाँ बिजलीघर होगा? कहाँ बिजली पहुँचाने के खंभे गाड़े जाएँगे? बाँध बनाकर पानी कहाँ से गिराया जाएगा? रेलवे स्टेशन कहाँ बनेगा? रेल की पटरी किस प्रकार बिछाई जाएगी? सड़कों का निर्माण कहाँ-कहाँ होगा? सामान लाने की व्यवस्था किस प्रकार होगी? वाहनों की व्यवस्था कैसे होगी? सामान रखने का गोदाम कहाँ बनेगा? आदि।


तब पता चला कि विकास की इस योजना में पूरे जंगल का ही विनाश था। मेरा कलेजा मुँह को आ गया। मैं और मेरे सारे साथी भयभीत थे। मेरे अन्य साथियों यथा पशु-पक्षी, कीट-पतंगे सबके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। गाँववालों की आँखों में आधुनिकता की चमक की पट्टी बंधी थी। उन्हें समूचे जंगल के काटे जाने का कोई दुख न था। उनके अनुसार गाँव में बिजली आ जाएगी, तो गाँव रोशन हो जाएगा। बच्चों को लालटेन की रोशनी में पढ़‌कर आँखें खराब नहीं करनी पड़ेगी। खेतों की सिंचाई करने के लिए मानसून का मोहताज नहीं होना पड़ेगा तथा रोजी-रोटी के लिए गाँव छोड़कर शहर नहीं जाना पड़ेगा... आदि। उनका यह सोचना शायद उनकी दृष्टि से उचित था, किंतु मेरी आशंका भी कहाँ निर्मूल थी?


बस फिर क्या था? जंगल के समाप्त किए जाने की घोषणा हो गई। देखते ही देखते जंगल साफ किया जाने लगा। मेरा दुर्भाग्य था कि इस सारी कार्यवाही का चश्मदीद गवाह मुझे ही होना था. क्योंकि मेरे काटे जाने के सवाल पर मेरा सप्तर्षि मंडल मुझे घेरकर खड़ा हो गया था। यह कहकर कि 'बरगद दादा हमारा दोस्त है, सुख-दुख का साथी है. हम इसे किसी भी हालत में कटने नहीं देंगे।'बच्चों की जिद ने सबको झुकने पर मजबूर कर दिया। उस दिन मेरे सातों साथी और मैं एक-दूसरे के


गले मिलकर खूब रोए। हम एक-दूसरे के स्पर्श से रोमांचित थे। मैं अपने नन्हें दोस्तों की दोस्ती देखकर अभिभूत था, लेकिन साथ-ही-साथ मेरे पास मेरे मौन रुदन के लिए और भी कारण थे। अपने सामने ही मशीनों द्वारा अपने साथियों को कटते-गिरते देखता। उन्हें घसीटा जाता, तो में असह्य पीड़ा से भर उठता। उनका व मेरा मूक रुदन, पशु-पक्षियों का क्रंदन किसी को भी नजर नहीं आ रहा था। काश। मुझे भी उन सबके साथ काट दिया जाता, तो कम-से-कम यह दिन तो न देखना पड़ता। फिर तो थे बस धूल भरे दिन और शोर भरी रातें। एक ओर सड़कों के बनने का काम शुरू हो गया, तो दूसरी ओर रेल की पटरी बिछाई जाने लगी। निर्माण कार्य के लिए ढो-ढोकर सामान लाया जाने लगा। समय ऐसे ही गुजरता गया। धूल के गुबार के साथ हृदय के गुबार को छिपाए हुए मेरे साथी भी धीरे-धीरे मुझसे दूर होते गए। बड़े होते-होते सब मुझसे कटते जा रहे थे। न जाने कहाँ चला गया वह हँसना-हँसाना, बतियाना, पेड़ की शाखाओं पर चढ़‌कर ऊधम मचाना, मेरी जटाओं से लटककर झूला झूलना, नदी में पत्थर फेंक फेंककर शोर मचाना, सब बीते दिन की-सी बातें हो गईं। धीरे-धीरे मेरे सप्तर्षि मंडल के साथी मुझसे बिछड़ते चले गए। गौरी की शादी हो गई थी। वह जाते समय मुझ पर जल चढ़ाने आई थी। सुखदा के गौने की तैयारी हो रही थी। आनंद और यूसुफ़ शहर चले गए थे। यश व नताशा आते जरूर थे, पर इक‌ट्ठे नहीं। वे बड़े जो हो गए थे। वह वाचाल जेनी, जो मेरी गोद में खूब उछलती फिरती थी सूनी-सूनी आँखों से मुझे निहारती और अपना सूनापन मिटाने के लिए मेरी छाँव में गाँव की स्त्रियों की चिट्ठियाँ पढ़‌ती और उनके जवाब लिख देती। पर धीरे-धीरे गर्द का गुबार इतना बढ़ गया कि सब कुछ धुंधला होने लगा। मेरे दर्द को भी मानो उस गर्द ने निगल लिया था। मैं गाँववालों की अदूरदर्शिता पर हैरान था। अपना जंगल नष्ट कर, परिवेश के बदल जाने पर भी वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि अब पहले की तरह वर्षा क्यों नहीं होती? मौसम अधिक गरम क्यों होने लगे हैं? साँस लेने में कठिनाई क्यों होने लगी है? बिजली होने पर भी ट्यूबवेल उतना पानी क्यों नहीं खींच पाते, जितना पहले खींचते थे? और आज जब सड़कें बन गई हैं. रेल की पटरी बिछ गई है और यातायात पूरे जोरों पर आरंभ हो गया है, तो कभी धुआँ उड़ाती रेलगाड़ी भागती दिखाई देती है, तो कभी लोहा लक्कड़ लिए दृक या फिर बसें और कारें। जब भी कभी ट्रकों का काफ़िला माल लेकर हॉर्न बजाता हुआ. ढेर सारी धूल उड़ाता हुआ निकलता है. तो मुझे प्रतीत होता है मानो मैं उसके विपरीत दिशा में भागने लगा हूँ।जब गाड़ियाँ तेज़ी से पूरब, पश्चिम या उत्तर, दक्षिण दिशा में भागती हैं, तो मैं निरीह-सा बरगद का पेड़ कभी बाईं ओर जाती गाड़ी के विपरीत दाईं ओर चलता महसूस करता हूँ, तो कभी पश्चिम दिशा में जाते ट्रक के विपरीत स्वयं को पूरब दिशा में भागता अनुभव करने लगता हूँ। कभी-कभी तो एक साथ विभिन्न दिशाओं से आती-जाती गाड़ियों के बीच में मैं तन्हा-सा बरगद चकरघिन्नी-सा चक्कर लगाता हुआ महसूस करने लगता हूँ।


और... तब मुझे लगता है कि मैं कहीं चलने तो नहीं लगा हूँ? दिशाहीन-सा मैं लक्ष्यहीन, दिग्भ्रमित, निरुद्देश्य और निरुत्साहित... यही है एक पेड़ के चल पड़ने की अनकही व्यथा।

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